अनिल सीतापुरी,जिला संवाददाता
जिंदगी की भागदौड़ में गुम हुए सावन के गीत व सावन के झूले
झूला तो पड़ गयो अमवा की डार मां, मोर पपीहा बोले, ऐसे कुछ बदले गीत है, जो सावन मास आते ही गली कूचों और आम के बगीचों में गूंजने लगते है। साथ ही मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच, युवतियां झूलों का लुत्फ उठाया करती थी। मगर अब न तो पहले जैसे आम के बगीचे रहे है और न ही मोर की आवाज सुनाई देती है।
एक समय था, जब सावन शुरू होने से पहले घरों के आंगन या फिर नजदीकी नीम के पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे, और महिलाएं अपने घर के कामकाज को निपटा कर झूलने के लिए पहंुच जाती थी। उसके बाद सभी महिलाओं की धमा चौकड़ी सजती और सावन के गीतों की आवाज दूर दूर तक जाती थी, लेकिन आधुनिकता की दौड़ में रीति रिवाजों का दमन होता जा रहा है। आने वाली पीढ़ियों को बताने के बाद पता चलता है कि पहले ऐसा हुआ करता था। अब सावन के झूले सभी गली मोहल्लों और पार्काे की बजाए कुछ ही जगहों पर दिखाई देते है। मंदिरों में सावन की एकादशी को भगवान को झूला झुलाने की परंपरा तो अभी भी निभाई जा रही है। साथ ही सावन की थीम पर क्लबों में